'कमला सुरैया chitthajagat' गूगल में सर्च करो तो सामने आता है 'कमला दास सुरैया की कविताओं में कुत्ता', मैंने antimawtar.blogspot.com को कुछ समय के लिये छोडा और ले आया ऐसा लेख जो कमला जी से संबन्धित बकवास का उत्तर भी है,=== हिन्दी जगत जानले कुत्ता इसलाम में नापसन्दीदा जानवर है, मुसलिम इसे शौकिया नहीं पाल सकता, हिफाज्रत की नीयत से पाला जा सकता है इससे दूरी बनाये रखनी तब भी होगी, कुत्ता से संबंन्धित स्वगींय कमला जी की कविताओं बारे में अनुमान से कह सकता हू कि वह इस्लाम कबूल करने से पहले की होंगी, क्योंकि उन्होंने एक इन्टरवयू में कहा था कि ‘मैं आगे केवल खुदा की तारीफ पर आधारित कविताएँ लिखूँगी।'
दूसरे कामेंटसः
कमला सुरैया के जन्म की तारीख भी 31(मार्च)थी और उनका निधन भी 31(मई)2009 तारीख को हुआ.
इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पीछे उन्होंने अपना इरादा और फ़ैसला कभी वास्तविक तौर पर ज़ाहिर नहीं किया.
उपरोक्त लेख के लेखक को भी वास्तविक तौर पर इस लेख से पता चल जायेगा क्यूं कमला जी इस्लाम में गईं,
जन्म की तारीख और निधन की तारीख लिखकर हमें कितनी खुशी दी इस लेखक ने,, ऐसा केवल मुहम्मद सल्ल. के साथ हुआ कि जन्म और निधन की तारीख एक हों, अल्लाह जन्नत नसीब करे इस बेबाक लेखिका को,आमीन--- मुहम्मद उमर कैरानवी
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स्वगींय श्रीमती डाक्टर कमला सुरैया(केरल, भारत) (पारिवारिक नाम डाक्टर कमलादास) उपन्यासकार हैं, कवयित्री हैं और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध् लेखिका और शोधकर्ता हैं। उन्होंने 12 दिसम्बर 1999 ई. को इस्लाम स्वीकार किया तो भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर के धार्मिक और शैक्षिक क्षेत्रों में तहलका मच गया। नीचे उनके इस्लाम क़बूल करने की घटना ब्यान की जा रही है। यह लेख कई अलग-अलग लेखों की सहायता से तैयार किया गया है।
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डाक्टर कमला सुरैया 1934 ई. में दक्षिणी भारत के केरल राज्य के एक इलाक़े पन्ना पूरकलम (जनपद थ्रेसर) में पैदा हुईं। उनका सम्बन्ध नायर जाति के एक अमीर हिन्दू घराने से है। उनकी माँ निलापत बिलामनी मलयालम भाषा की कवयित्री थीं, जबकि पिता बी. एम. नायर प्रसिद्ध पत्रकार थे और एक ही समय में दो पत्रिकाओं के सम्पादक थे। उनके पति स्वर्गीय मध्वादास इण्टरनेशनल मानीटरी फण्ड (IMF) के सीनियर कंसलटेंट थे।
खुद डाक्टर कमला सुरैया एक समय तक अंग्रज़ी की अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली आफ़ इण्डिया की सम्पादक कमेटी में शामिल रहीं। वे केरल की चिल्डेªªन फिल्म सोसाइटी की अध्यक्ष थीं। केरल के फारेस्ट्री बोर्ड की चेयर पर्सन थीं और मासिक पत्रिका ‘पोयट‘ की ओरिऐंट एडीटर थीं।
डाक्टर सुरैया एक ही समय मलयालम और अंग्रेज़ी भाषाओं में लिखती हैं। वे उपन्यासकार भी हैं, कहानीकार भी और कवयित्री भी। इस प्रकार विभिन्न हवालों से मलयालम में उनकी बीस से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और बहुत पसन्द की गई हैं। इनके नावल 'Entekatha' का पन्द्रह विदेशी भाषाओं में अनूवाद हो चुका है। इसी प्रकार अंग्रज़ी में उनकी पाँच किताबें हैं और बडी लोकप्रिय हुई हैं। 1964 ई. में इन्हें ‘एशियन पोएटरी प्राइज़‘ दिया गया। 1965 ई. में इन्हें केंट अवार्ड, एशियन वल्र्ड प्राइज़ और एकेडमी अवार्ड दिए गए। 1967 ई. में इन्हें 'Vayalar' अवार्ड मिला। जबकि 1969 ई. में उनके कथा-लेखन पर उन्हें केरल साहित्य एकेडमी अवार्ड का सम्मान मिला। कई देशी और विदेशी यूनीवर्सिटियों ने इन्हें डाक्ट्रेट की मानद डिग्रियाँ प्रदान की हैं।
इन आसाधरण शैक्षिक, साहित्यिक तथा लेखन और शोध सम्बन्धी योग्यताओं के साथ इस प्रसिद्ध महिला ने 12 दिसम्बर 1999 ई. को केरल के शहर कोचीन में एक शैक्षिक एवं साहित्यिक समारोह को सम्बोधित करते हुए उपमहाद्वीप के राजनीतिक, धार्मिक और शैक्षिक क्षेत्रों में इस रहस्योद्घाटन से सनसनी फैला दीः ‘‘दुनिया सुन ले कि मैंने इस्लाम क़बूल कर लिया है, इस्लाम जो मुहब्बत, अमन और शान्ति का दीन हैं, इस्लाम जो सम्पूर्ण जीवन व्यवस्था है, और मैंने यह फैसला भावुकता या सामयिक आधारों पर नहीं किया है, इसके लिए मैंने एक अवधि तक बडी गम्भीरता और ध्यानपूर्वक गहन अध्ययन किया है और मैं अंत में इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि अन्य असंख्य खूबियों के अतिरिक्त इस्लाम औरत को सुरक्षा का एहसास प्रदान करता है और में इसकी बडी ही जरूरत महसूस करती थी...... इसका एक अत्यन्त उज्जवल पक्ष यह भी है कि अब मुझ अनगिनत खुदाओं के बजाये एक और केवल एक खुदा की उपासना करनी होगी। यह रमज़ान का महीना है। मुसलमानों का अत्यन्त पवित्र महीना और मैं खुश हूँ कि इस अत्यन्त पवित्र महीने में अपनी आस्थाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर रही हूँ तथा समझ-बूझ और होश के साथ एलान करती हूँ कि अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद (सल्ल.) अल्लाह के रसूल (दूत) हैं। अतीत में मेरा कोई अक़ीदा नहीं था। मूर्ति पूजा से बददिल होकर मैंने नास्तिकता अपना ली थी, लेकिन अब मैं एलान करती हूँ कि मैं एक अल्लाह की उपासक बनकर रहूँगी और धर्म और समुदाय के भेदभव के बगैर उसके सभी बन्दों से मुहब्बत करती रहूँगी ।
बाद में एक टेलीवीज़न इंटरव्यू में इन्होंने स्पष्ट किया, ‘‘मैंने किसी दबाव में आकर इस्लाम कत्रबूल नहीं किया है, यह मेरा स्वतंत्र फैसला है और मैं इस पर किसी आलोचना की कोई परवाह नहीं करती। मैंने फौरी तौर पर घर से बुतों और मूर्तियों को हटा दिया है और ऐसा महसूस करती हूं जैसे मुझे नया जन्म मिला है।‘‘
‘‘टाइम्ज़ आफ इण्डिया’’ को इंटरव्यू देते हुए 15 दिसम्बर 1999 ई. को डाक्टर सुरैया कमला ने कहा, ‘‘इस्लामी शिक्षाओं में बुरक़े ने मुझे बहुत प्रभावित किया अर्थात वह लिबास जो मुसलमान औरतें आमतौर पर पहनती हैं। हकीकत यह है कि बुरका बडा ही जबरदस्त लिबास और असाधारण चीज़ है। यह औरत को मर्द की चुभती हुई नज़रों से सुरक्षित रखता है और एक खास किस्म की सुरक्षा की भावना प्रदान करता है।’’ उन्होंने और व्याख्या की, ‘‘आपको मेरी यह बात बडी अजीब लगेगी कि मैं नाम-निहाद आज़ादी से तंग आ गई हूँ। मुझे औरतों के नंगे मुह, आज़ाद चलत-फिरत तनिक भी पसन्द नहीं। मैं चाहती हूँ कि कोई मर्द मेरी ओर घूर कर न देखे। इसी लिए यह सुनकर आपको आश्चय्र होगा कि मैं पिछले चैबीस वर्षों से समय-समय पर बुरका औढ रही हूँ, शापिंग के लिए जाते हुए, सांस्कृतिक समारोहों में भाग लेते हुए, यहाँ तक कि विदेशों की यात्राओं में मैं अक्सर बुरका पहन लिया करती थी और एक खास किस्म की सुरक्षा की भावना से आनन्दित होती थी। मैंने देखा कि पर्देदार औरतों का आदर-सम्मान किया जाता है और कोई उन्हें अकारण परेशान नहीं करता।’’
डाक्टर सुरैया ने आगे कहा, ‘‘इस्लाम ने औरतों को विभिन्न पहलुओं से बहुत-सी आज़ादियाँ दे रखी हैं, बल्कि जहाँ तक बराबरी की बात है इतिहास के किसी युग में दुनिया के किसी समाज ने मर्द और औरत की बराबरी का वह एहतिमाम नहीं किया जो इस्लाम ने किया है। इसको मर्दों के बराबर अधिकारों से नवाज़ा गया है। माँ, बहन, बीवी और बेटी अर्थात इसका हर रिश्ता गरिमापूर्झा औ सम्माननीय है। इसको बाप, पति और बेटों की जायदाद में भागीदार बनाया गया है और घर में वह पति की प्रतिनिधि और कार्यवाहिका है। जहाँ तक पति के आज्ञापालन का बात है यह घर की व्यवस्था को ठीक रखते के लिए आवश्यक है और मैं इसको न गुलामी समझती हुँ और स्वतंत्रताओं की अपेक्षाओं का उल्लंघन समझती हुँ। इस प्रकार के आज्ञापालन और अनुपालन के बगैर तो किसी भी विभग की व्यवस्था शेष नही रह सकती और इस्लाम तो है ही सम्पूर्ण अनुपालन और सिर झुकाने का नाम, अल्लाह के सामने विशुद्ध बन्दगी का नाम। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की सच्ची पैरवी का नाम, यही गुलामी तो सच्ची आजादी की गारंटी देती है, वरना इन्सान तो जानवर बन जाए और जहाँ चाहे, जिस खेती में चाहै मुँह मारता फिरे। अतः इस्लाम और केवल इस्लाम औरत की गरिमा, स्थान और श्रेणी का लिहाज़ करता है। हिन्दू धर्म में ऐसी कोई सुविधा दूर-दूर तक नज़र नहीं आती।
डाक्टर सुरैया कमला को इस्लाम कबूल करने के लिए 27 वर्ष तक इन्तिज़ार करना पडा। वह सत्तर के दशक में इस्लाम से प्रभावित हुईं और इस सम्बन्ध में अपने पति से वार्ता करती रहीं जिन्होंने जवाब में एतिराज़ या मुखालफत का अन्दाज़ नहीं अपनाया, बल्कि सुझाव दिया कि किसी नतीजे पर पहुँचने से पहले उन्हें इस्लाम के बारे में विस्तृत और गहन अध्ययन करना चाहिए। उनके तीनों बेटों का रवैया भी सकारात्मक रहा। इसी लिए जब उनकी माँ ने इस्लाम क़बूल करने का एलान किया तो तीनों बेटे कोचीन पहुँच गए, ताकि सम्भावित विरोध का मिलकर मुकाबला किया जा सके। तीनों बेटों की प्रतिक्रिया थी, ‘‘हमें अपनी माँ के फैसल से र्कोइ तमभेद नहीं। वह हमारी माँ है, चाहे वे हिन्दू हो, ईसाई हों, या मुसलमान, हम हर हाल में उनका साथ देंगे और उनके सम्मान में कोई कमी नहीं आने देंगे। ‘‘ बेटों के आज्ञापालन का उल्लेख करते हुए डाक्टर सुरैया ने बताया, ‘‘मेरे बेटों ने कह दिया है कि अगर आप खुश हैं तो हम भी इस्लाम कबूल करने पर तैयार हैं।‘‘
इस्लाम क़बूल करने के बाद कटटर-पंथी हिन्दुओं की ओर से धमकियों का सिलसिला शुरू हो गया। पत्रों में और टेलिफोन पर गालियाँ दी जातीं। श्रीमती के बेटे एम. डी फलाइड ने बताया, ‘‘हमने इस बारें में कई फोन सुने हैं, एक व्यक्ति ने धमकी दी, ‘‘चैबीस घंटे के अन्दर इसको कत्ल कर दूँगा।‘‘ लेकिन डाक्टर सुरैया जवाब में खामोश थी। ‘‘मैंने सभी मामले अल्लाह पर छोड दिए हैं, वही हमारी सुरक्षा करने वाला है।’’
उन्हें दुनिया भर के मुसलमानों की ओर से बधाई सन्देश प्राप्त होते रहे और वे बड़ी सच्चाई, मुहब्बत और गरमजोशी से उन्हें अपने समर्थन का यकीन दिलाते रहे। इससे मेरे इस विश्वास को ताक़त मिली है कि इस्लाम मुहब्बत औ इख़्लास का मज़हब है। मेरी इच्छा है कि बहुत जल्द इस्लाम के केन्द्र पवित्र शहर मक्का और मदीना की यात्रा करूँ और वहाँ की पवित्र मिटटी को चूमूँ। अपने बारे में उनकी कविताओं, कहानियों और विभिन्न इंटरव्यूज से पता चलता है कि उन्होंने इस्लाम क़बूल करने का निर्णय अचानक नहीं किया, जैसा कि ऊपर इशरा किया जा चुका है। करीब 28 वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म के प्रति उनकी रूचि का आरम्भ उस समय हुआ जब उन्होंने दो यतीम मुस्लिम बच्चों.... इम्तियाज और इरशाद को लेपालक बना लिया । उन्होंने इन बच्चों को हिन्दू की हैसियत से पालन-पोषण करने के बजाये मुसलमान के रूप में प्रशिक्षित करने का फैसला किया। उनके लिए इस्लामी शिक्षा की व्यवस्था की और खुद भी इस्लाम और इस्लाम के इतिहास के बारे में अध्ययन आरम्भ कर दिया और फिर गम्भीरतापूर्वक और गहराई के साथ अपनी जानकारी में वृद्धि करती चली गईं। इस मकसद के लिए उन्होंने मुस्लिम परिवारों से सम्बन्ध बढा लिए। जिससे इस्लाम के बारें में उनकी एकाग्रता बढती गई। इसका उल्लेख उन्होंने विद्वान पति मधुवादास से किया, वे धर्म से विरक्त और निर्पेक्ष थे। उन्होंने सुझाव दिया कि इस्लाम के बारे में अधिक से अधिक अध्ययन करें और मन में पैदा होने वाली छोटी-से-छोटी आशंकाओं का जवाब हासिल करें। इसलिए जब उन्हें पूर्णतः संतुष्टि हो गई, मन सन्तुष्ट हो गया तो उन्होंने इस्लाम क़बूल करने का एलान कर दिया।
एक इंटरव्यू में ‘‘खलीज टाइम्ज‘‘ ने उनसे पूछा कि इस्लाम कबूल करने पर उनके जानने वालों और वर्तमान लेखकों की क्या प्रतिक्रिया थी, तो उन्होंने बताया, बहुत ही कम लोगों ने विरोध किया। बस कुछेक लोगों ने बुरा माना और मुझे उनकी कोई परवाह नहीं। धमकियाँ देनेवालों के बारे में कहा, ‘‘मैं तनिक भी उनसे भयभीत न हुई स्थानीय पुलिस के अधिकारियों ने मुझे गार्ड की पेशकश की। लेकिन मैंने उन्हें बता दिया है कि मुझे ऐसे किसी इन्तिज़ाम की ज़रूरत हीं। मुझे कूवल अल्लाह की हस्ती पर भरोसा है, वहीं मेरी सुरक्षा करेगा।‘‘ इसलिए यह बात ईमान को बढानेवाली है कि वे अपने ही घर में निवास करती रहीं और उन्होंने मामूली से सुरक्षा प्रबन्ध भी नहीं किए।
‘‘खलीज टाइम्ज़’’ ही से बातें करते हुऐ उन्होंने कहा, ‘‘मैंने अब बाक़ायदा पर्दा अपना लिया है और ऐसा लगता है कि जैसे बुरका बुलेटप्रूफ जैकेट है जिसमें और मर्दों की हवसनाक नज़रों से भी सुरक्षित रहती है और उनकी शरारतों से भी। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि इस्लाम ने नहीं, बल्कि सामाजिक अन्यायों ने औरतों के अधिकार छीन लिए हैं। इस्लाम तो औरतों के अधिकारों का सबसे बडा रक्षक है।‘‘ उन्होंने बडे विश्वास के साथ कहा, ‘‘इस्लाम मेरे लिए दुनिया की सबसे कीमती पूँजी है। यह मुझे जानसे बढकर प्रिय है और इसके लिए बडी से बडी कुरबानी दी जा सकती है।’’
जहाँ तक इस्लामी शिक्षाओं पर अमल की बात है। डाक्टर सुरैया कमला ने कहा, ‘‘मुझे हर अच्छे मुसलमान की तरह इस्लाम की एक-एक शिक्षा से गहरी मुहब्बत है। मैंने इसे दैनिक जीवन में व्यवहारिक रूप से अपना लिया है और धर्म के मुकाबले में दौलत मेरे नज़दीक बेमानी चीज़ है।’’ अपनी शायरी के हवाले से उन्होंने बताया, ‘‘मैं आगे केवल खुदा की तारीफ पर आधारित कविताएँ लिखूँगी। अल्लाह ने चाहा तो ईश्वर की प्रशंसा पर आधरित कविताओं की एक किताब बहुत जल्द सामने आ जाएगी।’’
इस्लाम क़बूल करने के बाद डाक्टर सुरैया कमला ने बहुत से समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और इलेक्ट्रानिक मीडिया को इंटरव्यूज़ दिए। हर इंटरव्यू में उन्होंने इस इरादे का इज़हार किया कि वे दुनिया पर इस्लामी शिक्षाओं की सच्चाई को उजागर करेंगी। ‘खलीज टाइम्ज‘ से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘में इस्लाम का परिच नई सदी के एक जिन्दा और सच्चे धर्म की हैसियत से कराना चाहती हूँ। जिसकी बुनियादें बुद्धि, साइंस और सच्चाइयों पर आधारित हैं। मेरा इरादा है कि अब मैं शायरी को अल्लाह के गुणगान के लिए अर्पित कर दूँ और कुरआन के बारें में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करलूँ और उन इस्लामी शिक्षाओं से अवगत हो जाऊँ जो दैनिक जीवन में रहनुमाई का सबब बनती हैं। मेरे नज़दीक इस्लाम की रूह यह है कि एक सच्चे मुसलमान को दूसरों की अधिक से अधिक सेवा करनी चाहिए। अल्लाह का शक्र है कि में पहले से भी इस पर कार्यरत हूँ और आगे भी यही तरीक़ा अपनाउँगी। अतः इस सम्बन्ध में मैं खुदा के बन्दों तक इस्लाम की बरकतें पहुँचाने का इरादा रखती हूँ। मैं जानती हूँ कि इस्लाम की नेमत मिल जाने के बाद मैं खुशी और इत्मीनान के जिस एहसास से परिचित हुई हूँ उसे सारी दुनिया तक पहुँचा दूँ। सच्चाई यह है कि इस्लाम क़बूल करने के बाद मुझे जो इत्मीनान और सुकून हासिल हुआ है और खुशी की जिस कैफियत से मैं अवगत हुई हूँ, उसे बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। इसके साथ ही मुझे सुरक्षा का एहसास भी प्राप्त हुआ है। मैं बडी उम्र की एक औरत हूँ और सच्ची बात यह है कि इस्लाम कुबूल करने से पहले जीवन भर बेखौफी का ऐसा खास अन्दाज़ मेरे तजुर्बे में नहीं आया। सुकून, इत्मीनान, खुशी और बेखौफी की यह नेमत धन-दौलत से हरगिज नहीं मिल सकती। इसी लिए दौलत मेरी नज़रों में तुच्छ हो गई है।‘‘
खुशी और इत्मीनान के इस एहसास को उन लाखों बधाई सन्देशों ने और अधिक बढा दिया जो उन्हें दुनिया भर से मिलते रहे, खलीज टाइम्ज़ के रिपोर्टर के मुताबिक उनके टेलिफोन की घंटी दिन भर बजती रतही है। इस्लाम के मानने वाले उनकी खुशियों में जी भरके शरीक होते रहे।
साभारः
‘‘हमें खुदा कैसे मिला’’ मधुर संदेश संगम, दिल्ली-25, पृष्ठ 94 से 100 तक
(80 नव-मुल्लिम महिलाओं की दास्तान की यह पुस्तक ब्लाग islaminhindi.blogspot.com पर पीडीफ में उपलब्ध)
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